सिमटती होली, बिखरती यादें…

कभी गांव की होली का अपना ही रंग हुआ करता था। सुबह होते ही दोस्त-यारों के साथ घर से निकल जाना, फिर पूरा दिन चिकड़-माटी, गुलाल और रंगों में सराबोर रहना। हर घर जाकर होली खेलना, बिना भेदभाव के सबके माथे पर रंग गुलाल लगाना, हर दरवाजे से “होली है!” की आवाज़ उठना—ये सब एक परंपरा थी, जो दिलों को जोड़ती थी।

शाम होते-होते बुजुर्गों के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद लेना, छोटे-बड़ों से गले मिलकर सारे गिले-शिकवे मिटा देना… और फिर ढोलक-मंजीरा की थाप पर थिरकते हुए पूरे गांव में जोगीरा गूंज उठता—“जोगीरा सारा रा रा… होली है!”

पर अब… नौकरी और जिम्मेदारियों के बोझ तले होली एक कमरे में ही सिमट गई। न मिट्टी का सोंधापन रहा, न गले लगने की गर्माहट। अब होली रंगों से ज्यादा यादों में खेली जाती है।

कभी गांव के कच्चे आंगन में खेली गई वो होली आज दिल के किसी कोने में धुंधली पड़ रही है, लेकिन जब भी “जोगीरा सारा रा रा” सुनाई देता है, मन फिर से उन्हीं गलियों में लौट जाता है…

Anant Dev Pandey